Monday, February 1, 2010

पापा और बिटिया

कोमल कली सी बेटी , पापा के आगंन मे चहकी ।बनके सबकी लाडली , पुरे घर उपवन मे महकी ।
लाडों से पली, सबकी दुलारी बिटिया स्कूल चली ।देख कर उस चिडिया को, मन अति आनंदित होता था ।
छोटी सी बेटी, उसके छोटे छोटे हाथ, पापा को दुलराते ।जैसे कोइ मां अपने बेटे को दुलराती है ।
पापा उसकी छॊटी सी गोद मे सर रख कर खो जाते ।ऐसा सुखद एहसास सिर्फ़ मा की गोद मे ही होता है ।
पापा बेटी साथ साथ, सुबह घर से स्कूल के लिये जाते ।दोपहर मे पापा बेटी को स्कूल से लेकर घर आते ।
फ़िर दोनों साथ साथ, खाना खा कर थोडी देर सो जाते ।कभी बेटी मां बनकर पापा को सुलाती, कभी पापा उसे सुलाते ।
फ़िर उठकर पापा आफ़ीस जाते, बिटीया फ़िर दादी बूआ मां ।इन सबका प्यार लेती और मानों उनपर एहसान करती ।
शाम को पापा के लोटते ही उन पर लद लेती ।बहुत मस्ती करती पापा से , और कुश्ती तक लड लेती ।
जीत तो बिटिया कि तय थी , क्योंकी ये तो पापा बेटी मे ।तय शुदा नूरा कुश्ती होती थी । जीत के बाद बेटी ताली बजाती ।
कभी बेटी मेहरबान होती , तो पापा को भी झूंठ मूंठ मे ।बोलती ॥ पापा अबकी बार तुम जीतना , मैं हारूंगी ।
ऐसा कभी हुवा है , कभी अपनी बहादुर बेटी से कोई पापा जीता है ।पापा फ़िर जान बूझकर हार जाते, बेटी कहती क्या पापा ? फिर हार गये ।

(ताऊ रामपुरिया के ब्लॉग ताऊ डोट इन से साभार)